इलेक्ट्रो होम्योपैथी एक ऐसी चिकित्सा पद्धति है जिसका विकास 19वीं सदी के अंत में हुआ और इसे भारत में अपनाने की प्रक्रिया बहुत ही लंबी और संघर्षपूर्ण रही। यह चिकित्सा पद्धति, जो मुख्य रूप से प्राकृतिक अवयवों और ऊर्जा के संयोजन पर आधारित है, इटली के डॉ. कॉउंट सीजर मैटी द्वारा विकसित की गई थी। हालांकि, भारत में इसके प्रसार और स्वीकृति का रास्ता आसान नहीं दिखा और इसके लिए कई वर्षों से संघर्ष जारी है।
इलेक्ट्रो-होम्योपैथी का भारत में आगमन
इलेक्ट्रो-होम्योपैथी का भारत में प्रसार 1870 और 1880 के बीच हुआ। पहले पहल इसे भारत में लोकप्रिय बनाने में डॉ. अन्ना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिन्होंने 1885 में मद्रास प्रेसीडेंसी (ब्रिटिश भारत) में इस पद्धति का प्रचार-प्रसार किया। डॉ. अन्ना ने भारत और दक्षिण एशिया में इलेक्ट्रो-होम्योपैथी दवाओं का वितरण शुरू किया और धीरे-धीरे यह पद्धति अन्य स्थानों पर भी फैलने लगी। 1890 में, डॉ. फादर अगस्तस मुलर ने कर्नाटका के मंगलौर में एक इलेक्ट्रो-होम्योपैथी पर आधारित कुष्ठ रोग अस्पताल और आश्रम स्थापित किया, जो इस पद्धति की प्रभावशीलता का प्रमाण था।
डॉ. एन. एल. सिन्हा और इलेक्ट्रो-होम्योपैथी का भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में प्रवेश
भारत में इलेक्ट्रो-होम्योपैथी का असली प्रसार डॉ. एन. एल. सिन्हा द्वारा किया गया, जिन्होंने इसे भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में महत्वपूर्ण स्थान दिलाने के लिए अथक प्रयास किए। डॉ. सिन्हा का जन्म 30 अगस्त 1889 को हुआ था और उन्होंने 1908 में इलेक्ट्रो-होम्योपैथी का अभ्यास शुरू किया। उन्हें यह पद्धति एक पुस्तक "Stepping Stones to Electro-Homeopathy" के माध्यम से मिली, जिसे डॉ. ए. जे. एल. ग्लिडन ने लिखा था। डॉ. सिन्हा ने 1911 में लंदन स्थित "Superior Independent School of Applied Medical Sciences" से एम.डी. (इलेक्ट्रो-होम्योपैथी) की डिग्री प्राप्त की और भारत लौटकर उन्होंने अपनी चिकित्सा पद्धति की शुरुआत की।
डॉ. सिन्हा ने 1912 में सीतापुर में एक इलेक्ट्रो-होमियोपैथी संस्थान स्थापित किया और 1918 तक वहां इसका अभ्यास किया। इसके बाद, उन्होंने कानपुर में अपने काम को फैलाया और 1920 में "नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ इलेक्ट्रो-कॉम्प्लेक्स होम्योपैथी" की स्थापना की। उनकी किताब "फंडामेंटल लॉज़ एंड मैटेरिया मेडिका ऑफ इलेक्ट्रो-होम्योपैथी" ने इस पद्धति को वैश्विक स्तर पर मान्यता दिलाने में मदद की। डॉ. सिन्हा का यह कार्य न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी इलेक्ट्रो-होमियोपैथी की पहचान बनाने में सहायक सिद्ध हुआ।
सरकारी परीक्षण और संघर्ष: डॉ. सिन्हा का संघर्ष
डॉ. सिन्हा का इलेक्ट्रो-होम्योपैथी की सरकारी मान्यता के लिए संघर्ष एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उन्होंने देखा कि इस पद्धति की प्रभावशीलता को प्रमाणित करने के लिए सरकारी समर्थन आवश्यक था। इस दिशा में उन्होंने कई प्रयास किए, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण था 1951 में उत्तर प्रदेश सरकार से चिकित्सा परीक्षण की मांग। डॉ. सिन्हा ने 1948 में हिदायत अली नामक एक कुष्ठ रोगी का इलाज शुरू किया, जो पिछले 12 वर्षों से बीमारी से ग्रस्त था और छह साल से अस्पताल में भर्ती था।
डॉ. सिन्हा ने हिदायत अली का इलाज छह महीने के भीतर किया और वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया। इस उपचार के बाद, सरकार ने इस पद्धति को मान्यता देने का वादा किया। हालांकि, इसके बाद सरकार ने इस वादे को पूरा नहीं किया, और इस पर डॉ. सिन्हा ने अनशन शुरू किया। 1 जुलाई 1951 को उन्होंने उत्तर प्रदेश के चिकित्सा और स्वास्थ्य निदेशक के कार्यालय में अनशन शुरू किया, यह एक अभूतपूर्व कदम था, जो पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया।
अनशन और सरकार की प्रतिक्रिया
डॉ. सिन्हा का अनशन एक महीने तक चला, और उनके आंदोलन ने एक नई लहर पैदा की। आम जनता, चिकित्सकों और समाज के विभिन्न वर्गों से उन्हें समर्थन मिला। अंततः सरकार ने 1951 के अंत में छह और कुष्ठ रोगियों को इलाज के लिए डॉ. सिन्हा को सौंपने का वादा किया। हालांकि, इस वादे के बाद भी सरकार ने डॉ. सिन्हा को दवाओं की आपूर्ति में कोई ठोस कदम नहीं उठाया।
डॉ. सिन्हा का संघर्ष अनवरत जारी रहा, और उन्होंने इलेक्ट्रो-होमियोपैथी को मान्यता दिलाने के लिए कई और प्रयास किए, लेकिन अफसोस, सरकारी निकायों से कभी ठोस कदम नहीं उठाए गए। उनके इस निरंतर संघर्ष ने इलेक्ट्रो-होम्योपैथी को व्यापक स्तर पर फैलने से रोक दिया, लेकिन इसके बावजूद उनका योगदान अविस्मरणीय है।
डॉ. सिन्हा का अंतिम योगदान और निधन
डॉ. एन. एल. सिन्हा ने न केवल अपनी चिकित्सा पद्धति को फैलाया, बल्कि इसके सिद्धांतों, चिकित्सा विधियों और दवाओं पर गहन शोध किया। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में इलेक्ट्रो-होम्योपैथी पर विस्तृत जानकारी दी गई। उन्होंने इसे एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में स्थापित करने की कोशिश की, और इसके लिए कई अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से भी संपर्क किया।
उनका जीवन संघर्ष और समर्पण का प्रतीक था। डॉ. सिन्हा का निधन 30 अगस्त 1979 को हुआ, लेकिन उन्होंने अपने पीछे एक मजबूत धरोहर छोड़ी। उनकी किताबों और लेखों के माध्यम से इलेक्ट्रो-होम्योपैथी के अनुयायी आज भी उनके योगदान को याद करते हैं।
इलेक्ट्रो-होम्योपैथी का भारत में सफर आसान नहीं था। यह एक लंबा और कठिन संघर्ष था, जिसमें डॉ. एन. एल. सिन्हा जैसे समर्पित और निष्ठावान व्यक्तित्व ने इसे भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में महत्वपूर्ण स्थान दिलाने के लिए अपना सर्वस्व समर्पित किया। उनके प्रयासों ने यह सिद्ध कर दिया कि कोई भी चिकित्सा पद्धति यदि वैज्ञानिक रूप से प्रभावी हो, तो वह समाज में बदलाव ला सकती है, भले ही उसे मंजूरी मिलने में वक्त लगे। डॉ. सिन्हा का जीवन हमें यह सिखाता है कि अगर निष्ठा और समर्पण से किसी उद्देश्य की दिशा में काम किया जाए, तो अंततः सफलता मिलती है।
This is remarkable information about Dr Sinha
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